मुंतशिर शहज़ाद-गान-ए-दिल का शीराज़ा न हो काश यारों की हँसी फ़ित्नों का ग़म्माज़ा न हो अब वो सोने का सही लेकिन मिरे किस काम का जिस मकाँ में कोई खिड़की कोई कोई दरवाज़ा न हो वो जवाँ ख़ून और उस पर नश्शा-ए-दीदा-वरी क्या करें वो भी जो मेरे ग़म का अंदाज़ा न हो याद है कुछ तुम ने कल ख़ाका उड़ाया था मिरा फूल सी आँखों में शबनम कल का ख़म्याज़ा न हो फिर जुनूँ क्यूँ-कर सजे दुनिया को कैसे रंग दे बाइ'स-ए-तहरीक अगर यारों का आवाज़ा न हो काश मेरे ग़म का साया भी रहे अपनों से दूर काश अब यकजा मिरी यादों का शीराज़ा न हो आ गले मिलने से पहले क्यूँ न मिल कर देख लें दिल के तह-ख़ाने में कोई चोर दरवाज़ा न हो वो तो मुर्दा हैं उन्हें एहसास की ख़ुशबू से क्या अपने अंदाज़-ए-नज़र का जिन को अंदाज़ा न हो काश ऐ 'ग़ौसी' ज़माने भर का बचपन लौट आए सब के चेहरों पर हक़ीक़ी नूर हो ग़ाज़ा न हो