मुसलमाँ ग़ौर कर क्यूँ आज तेरी वो पहली आबरू बाक़ी नहीं है मसाइब ग़ैर के पेश-ए-नज़र हैं रगों में वो लहू बाक़ी नहीं है ग़ज़ब है भाई का दुश्मन है भाई उख़ुव्वत की वो ख़ू बाक़ी नहीं है मसाइब ग़ैर कै पेश-ए-नज़र हैं ख़ुद अपनी जुस्तुजू बाक़ी नहीं है किया पैरहन-ए-दीं इस तरह चाक कि अब जा-ए-रफ़ू बाक़ी नहीं है अनादिल क्यूँ न हूँ दिल-गीर-ओ-ख़ामोश गुलों में रंग-ओ-बू बाक़ी नहीं है ज़बानों पर तो है अल्लाह अल्लाह दिलों में हाए तू बाक़ी नहीं है