मुश्तहर नाम करो तुम मिरा अख़बारों में मैं तो शामिल हूँ मोहब्बत के गुनहगारों में मर के भी ज़िंदा-ए-जावेद हैं फ़नकार-ए-अज़ीम जो नज़र आते हैं तारीख़ के शह-पारों में वक़्त के साथ बदल जाते हैं जिन के अतवार मुझे शामिल न करो ऐसे क़लमकारों में लोग अब घर से निकलते हुए यूँ डरते हैं नज़्र-ए-दहशत कहीं हो जाएँ न बाज़ारों में जिन के सुर ताल हैं अब रौनक़-ए-बाज़ार-ए-अदब बट गई बज़्म-ए-सुख़न ऐसे अदाकारों में कोई लेता ही नहीं बुलबुल-ए-शैदा की ख़बर बूम आते हैं नज़र शाख़ पे गुलज़ारों में आज मफ़क़ूद है वो जज़्बा-ए-असहाब-ए-रसूल रक़्स करते थे जो तलवार की झंकारों में जिस के अस्लाफ़ की अज़्मत के निशाँ हैं हर सू जाए इबरत है वही क़ौम है नादारों में लोग कहते हैं उसे क़स्र-ए-तमन्ना अपना जिस के अस्लाफ़ थे अपने कभी मे'मारों में जो कभी मेरे इशारों पे चला करते थे ख़ू-ए-इख़्लास वो बाक़ी न रही यारों में नाम है सफ़्हा-ए-हस्ती से अब उन का ग़ाएब मुल्क-ओ-मिल्लत के जो 'बर्क़ी' थे वफ़ादारों में