मुसीबत में कभी ऐसे हसीं लम्हे भी आते हैं कि दुश्मन भी पुरानी रंजिशों को भूल जाते हैं बहुत जी चाहता है जिन से कोई सच बताने को न जाने क्यों वो सच क़स्दन उन्ही से हम छुपाते हैं उन्हें ख़ुद एहतिसाबी की भी कुछ तौफ़ीक़ हो या-रब जो क़स्दन आए दिन मेरी वफ़ाएँ आज़माते हैं बड़ा क़ातिल तकल्लुफ़ पल रहा है तेरे लहजे में बड़े शुबहात मेरे दिल में पैहम सर उठाते हैं ख़ुदा रा संग-रेज़ों का शुबह करना न तुम हरगिज़ मिरे ख़त में ख़ुलूस-ए-दिल के मोती जगमगाते हैं ये रुख़ है क्या हसीं 'अनवर-शमीम' अपनी तबाही का कई अहबाब जो बेचैन थे अब मुस्कुराते हैं