नस्ल-दर-नस्ल मिला है हमें उफ़्ताद का दुख मिरे अज्दाद का दुख है मिरी औलाद का दुख मैं ने जलता हुआ फिर पाक वतन भी देखा मैं न भूला था अभी काबुल-ओ-बग़दाद का दुख जाँ-ब-हक़ कितने हुए और हैं ज़ख़्मी कितने एक मुद्दत से है लाहक़ मुझे आ'दाद का दुख शहर-ए-दाऊद में सुनता ही नहीं है कोई मेरे विज्दान की चीख़ें ये मिरे नाद का दुख कितने ही लोग बढ़े मेरा मुदावा करने बाँटने कोई न आया मिरे हम-ज़ाद का दुख लौट आया हूँ क़फ़स में ब-रज़ा-ओ-रग़बत मुझ से देखा नहीं जाता मिरे सय्याद का दुख तेरे होते हुए हर दुख में भी सुख शामिल थे अब तो शामिल है हर इक सुख में तिरी याद का दुख