मुस्तक़िल फ़िक्र-ए-तंग-दस्ती है हम हैं और दौर-ए-फ़ाक़ा-मस्ती है इस तरह जी रहे हैं दीवाने जैसे हस्ती बराए हस्ती है आदमियत से बे-ख़बर हो कर आदमी महव-ए-ख़ुद-परस्ती है तू ने शायद अभी नहीं देखी रिफ़अ'तों में निहाँ जो पस्ती है जिस की बुनियाद शश-जिहत कहिए वो हमारा ही संग-ए-हस्ती है