न चारागर न मसीहा न राहबर था मैं नज़र में फिर भी ज़माने की मो'तबर था मैं अना पे हर्फ़ न आ जाए हक़-परस्तों की उठाए अपने ही नेज़े पे अपना सर था मैं सवाल ये नहीं किस ने किया था क़त्ल मुझे सवाल ये है कि क्यूँ ख़ुद से बे-ख़बर था मैं जो सुब्ह-ए-नौ का असीरी में दे रहा था पयाम वो इंक़िलाब-ए-ज़माना का नामा-बर था मैं सुकून-ए-दिल भी मिला आबलों की लज़्ज़त भी तुम्हारे साथ सफ़र में जो हम-सफ़र था मैं हुए थे पस्त हवाओं के हौसले 'आरिफ़' जब अपने खोले फ़ज़ाओं में बाल-ओ-पर था मैं