न छुटा हाथ से यक लहज़ा गरेबाँ मेरा चश्म-ए-तर ही पे रहा गोशा-ए-दामाँ मेरा जिस तरफ़ गुज़रे करे रू-ए-ज़मीं को गुलज़ार सैर-ए-गुलशन से फिरे जब गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा खेलें आपस में परी-चेहरा जहाँ ज़ुल्फ़ें खोल कौन पूछे है वहाँ हाल-ए-परेशाँ मेरा बख़्त हैं शोर ये अपने ही कि वो नाैशीं लब औरों का चश्मा-ए-हैवाँ है नमक-दाँ मेरा औरों की आँखों को देखूँ हूँ मैं दीदार-नसीब बना रोने को यही दीदा-ए-गिर्यां मेरा दूर उस लब से जो गुज़रे है दिल-ए-पुर-ख़ूँ पर जाने मेरा ही जिगर और ये दंदाँ मेरा बे-अजल मरता रहा इश्क़ में उस के उम्र भर कहूँ किस मुँह पे मैं 'हसरत' वो है जानाँ मेरा