न दरमियाँ न कहीं इब्तिदा में आया है बदल के भेस मिरी इंतिहा में आया है उसी के रूप का चर्चा है अब फ़ज़ाओं में हवा के रुख़ को पलट कर हवा में आया है कभी जो तेज़ हुई लौ तो जगमगा उट्ठा बरहना था जो कभी अब क़बा में आया है मुझे है फूल की पत्ती सा अब बिखर जाना वो छुप-छुपा के मिरी ही रिदा में आया है असीर-ए-ज़ुल्फ़ को शायद यहीं रिहाई है पुकारता हूँ जिसे वो सदा में आया है निगल गई है तसव्वुर की आँच आँच इसे कोई वजूद किसी सानेहा में आया है मैं छेड़ता हूँ समुंदर की धुन में नग़्मों को वही जो राग दिल-ए-मुतरिबा में आया है उसी के शेर सभी और उसी के अफ़्साने उसी की प्यास का बादल घटा में आया है