न होते रिंद गर साक़ी तो मयख़ाने कहाँ जाते सुराही किस के घर जाती ये पैमाने कहाँ जाते पता मंज़िल का मिलता है तो दीवानों से मिलता है न होते गर ये दीवाने तो फ़रज़ाने कहाँ जाते तुम्हारे आरिज़-ए-ताबाँ हरीफ़-ए-शम्अ'-ए-महफ़िल हैं न आते खिच के परवाने ख़ुदा जाने कहाँ जाते मिरे मम्नून हैं दश्त-ओ-बयाबाँ एक मुद्दत से चमन में गर बहल जाता तो वीराने कहाँ जाते तुम्हारी ज़ुल्फ़ के ख़म हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ हैं न आते दाम-ए-गेसू में तो दीवाने कहाँ जाते पता दिल का हमारे आप को मालूम था वर्ना नज़र के तीर ले कर शौक़ फ़रमाने कहाँ जाते बुढ़ापे में जवानी का ज़माना याद आता है मगर 'आज़ाद' वो लम्हात फिर लाने कहाँ जाते