ये हक़ीक़त मजाज़ है फिर भी जाने क्यों दिल-गुदाज़ है फिर भी वक़्त के हाथ मात खाई है अक़्ल पर अपनी नाज़ है फिर भी रात दिन झूट लूट मक्र-ओ-फ़रेब पंज-वक़्ता नमाज़ है फिर भी छेड़ करता है मह-जबीनों से आदमी पाक-बाज़ है फिर भी हम फ़क़त दो क़दम समझते हैं गरचे मंज़िल दराज़ है फिर भी गो नहीं कोई माइल-ए-तौबा दर-ए-तौबा तो बाज़ है फिर भी काम 'आज़ाद' क्यों नहीं बनते वो बड़ा कार-साज़ है फिर भी