न इब्तिदा-ए-जुनूँ है न इंतिहा-ए-जुनूँ बस एक फ़ित्ना है कहिए जिसे अदा-ए-जुनूँ वो गुल की तरह से हँसता है मेरी हालत पर इरादा अब है कोई और गुल खिलाए जुनूँ कमाल ये है ख़िरद भी तलाश करती है बरा-ए-सज्दा-ए-ता'ज़ीम नक़्श-ए-पा-ए-जुनूँ ये अपनी अपनी तबीअ'त है क्या किया जाए तुम्हें रुलाये जुनूँ और मुझे हँसाए जुनूँ वजूद-ए-आशिक़-ओ-मा'शूक़ से जहाँ रौशन वो नूर-ए-वस्ल है जिस से की जगमगाए जुनूँ असर ये होता है सूरज भी जाग उट्ठा है कि छेड़ करती है ग़ुंचों से जब सबा-ए-जुनूँ वो मुझ से मर्तबा-ए-इश्क़ में बुलंद रहे ख़ुदा करे वो चला जाए मावरा-ए-जुनूँ जो तुझ को छूता है अनमोल हो ही जाता है तिरे वजूद में है यार कीमिया-ए-जुनूँ 'सुहैल' उस को भी है ए'तिराफ़-ए-जज़्बा-ए-शौक़ वो बन गया है मुबारक हो दिल-रुबा-ए-जुनूँ