न जाने कौन है और किस के इंतिज़ार में है वो एक शख़्स जो बरसों से रहगुज़ार में है कहाँ ये बात तिरी फ़त्ह-ए-शानदार में है जो बात दोस्त मिरी मस्लहत की हार में है जो देखूँ जानिब-ए-गुलशन भी मैं तो क्या देखूँ जो तू नहीं है तो क्या मौसम-ए-बहार में है अंधेरे हो गए रौशन ज़बाँ पे आते ही वो आफ़्ताब की तासीर ज़िक्र-ए-यार में है ये तेरा वहम कि तू बे-सुकूँ नहीं ऐ दोस्त शरीक मेरी तड़प भी तिरे क़रार में है बग़ैर नाम लिए भी पुकार कर देखा किसी का नाम बराबर मिरी पुकार में है ग़म-ए-हयात से रौनक़ हयात की है 'नसीब' कि फूल फूल है जब तक हुजूम-ए-ख़ार में है