न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता कि नीचे आसमाँ के और पैदा आसमाँ होता कहे है मुर्ग़-ए-दिल ऐ काश में ज़ाग़-ए-कमाँ होता कि ता शाख़-ए-कमाँ पर उस की मेरा आशियाँ होता अभी क्या सर्द क़ातिल ये शहीद-ए-तुफ़्ता-जाँ होता कोई दम शम-ए-मुर्दा में भी है बाक़ी धुआँ होता न होती दिल में काविश गर किसी की नोक-ए-मिज़्गाँ की तो क्यूँ हक़ में मिरे हर मू-ए-तन मिस्ल-ए-सिनाँ होता अज़ा-दारी में है किस की ये चर्ख़-ए-मातमी-जामा कि हबीब-ए-चाक की सूरत है ख़त्त-ए-कहकहशाँ होता बगूला गर न होता वादी-ए-वहशत में ऐ मजनूँ तो गुम्बद हम से सर-गश्तों की तुर्बत पर कहाँ होता जो रोता खोल कर दिल तंगना-ए-दहर में आशिक़ तो जू-ए-कहकहशाँ में भी फ़लक पर ख़ूँ रवाँ होता न रखता गर न रखता मुँह पे ये दाना मरीज़-ए-ग़म मगर तेरा मयस्सर बोसा-ए-ख़ाल-ए-दहाँ होता तिरे ख़ूनीं जिगर की ख़ाक पर होता अगर सब्ज़ा तो मिज़्गाँ की तरह उस से भी पैहम ख़ूँ रवाँ होता रुकावट दिल की उस काफ़िर के वक़्त-ए-ज़ब्ह ज़ाहिर है कि ख़ंजर मेरी गर्दन पर है रुक रुक कर रवाँ होता न करता ज़ब्त मैं गिर्या तो ऐ 'ज़ौक़' इक घड़ी भर में कटोरे की तरह घड़ियाल के ग़र्क़ आसमाँ होता