न ख़राब होता मैं धूप में न अँधेरी रात में घूमता तू जो साथ होता तो और ही किसी काएनात में घूमता तिरे ज़र्द ख़ित्ते में ख़ाक उड़ाने से वक़्त मिलता अगर कभी तो मैं ज़िंदगी तिरे सब्ज़-पोश इलाक़ा-जात में घूमता ये हिजाब हटता निगाह से ये ग़ुबार छटता जो राह से मैं तिरी निशानियाँ देखता मैं अजाइबात में घूमता कहीं रंग देखता नौ-ब-नौ कहीं जज़्ब करता महक तिरी कभी सैर करता सिफ़ात में कभी तेरी ज़ात में घूमता यही फ़ितरत अपनी जमालियात के राज़ आँख पे खोलती अगर आदमी कभी मंज़रों के तग़य्युरात में घूमता वो तो यूँ हुआ कि ख़ुमार-ए-रंग छलक पड़ा मिरी आँख से मिरा सर वगर्ना जो घूमता तो चमन भी साथ में घूमता कहीं अक्स चूमता चाँद का कहीं झूमता किसी लहर पर मैं उभरते डूबते काएनाती तनाज़ुरात में घूमता कभी जा निकलता मैं धूप में कभी चाँदनी के सरूप में तिरे गिर्द घूमती रौशनी के तलाज़ुमात में घूमता मैं इसी लिए तो बचा हुआ था ग़ुबार-ए-गर्दिश-ए-वक़्त से वो जहाँ घुमाता मैं बस वहीं की जमालियात में घूमता न यहाँ तुलू-ओ-ग़ुरूब है न कोई शुमाल-ओ-जुनूब है ये मैं किस तरफ़ निकल आया हूँ तिरे शश-जहात में घूमता मिरा दिल तो शम्स-ए-अबद के गिर्द तवाफ़ करती ज़मीन है ये कोई गलोब तो है नहीं जो तुम्हारे हाथ में घूमता कई 'शाहिद' और भी मिंतक़े हैं मकाँ ज़माँ से जुड़े हुए मुझे राह मिलती तो मैं वहाँ के तहय्युरात में घूमता