न मंज़िल से न मंज़िल का निशाँ तक जुनूँ ले जाएगा आख़िर कहाँ तक जहाँ ममनूअ' है शग़्ल-ए-फ़ुग़ाँ तक वहाँ शिकवे अगर आए ज़बाँ तक न उठवाओ हमें महफ़िल से अपनी बड़ी मुश्किल से आए हैं यहाँ तक तुम्हें महसूस होगा साथ हूँ मैं मुझे आलम में ढूँडोगे जहाँ तक हम उन राहों पे तन्हा चल रहे हैं जहाँ गुम हो गए हैं कारवाँ तक क़फ़स ही में बहुत अच्छे थे 'बिस्मिल' मिला क्या आ के उजड़े आशियाँ तक