न फ़ाएदा हो तो फिर बे-सबब नहीं आते मिज़ाज पूछने वाले भी अब नहीं आते मैं अपनी मौज में बहती हूँ 'अंजना' हर पल मुझे ज़माने के ये तौर ढब नहीं आते ये सुब्ह-ओ-शाम जो ज़ुल्म-ओ-सितम की बारिश है तिरी ज़मीन पे यूँही ग़ज़ब नहीं आते मैं ढलना चाह के भी इस में ढल नहीं सकती यहाँ के तौर मुझे इतने सब नहीं आते कभी कभी तिरा पैग़ाम ले के आते थे फ़रिश्ते वो भी मगर तेरे अब नहीं आते मैं सीधी-सादी ज़बाँ में करूँ हूँ अभिवादन मुझे बनावटी झूठे लक़ब नहीं आते मैं अपने शब्दों को आदाब भी सिखाती हूँ ग़ज़ल में लफ़्ज़ मिरे बे-अदब नहीं आते