ना-अहल से भूले से दानाई न ली जाए दरिया से समुंदर की गहराई न ली जाए हर पल हो सना-ख़्वानी उस रब्ब-ए-हक़ीक़त की इस आलम-ए-इरफ़ाँ से तन्हाई न ली जाए जिस बज़्म में मिलता हो इंसाफ़-ए-जहाँगीरी उस बज़्म से फिर कैसे अच्छाई न ली जाए जो गुलशन-ए-हस्ती को शादाब न कर पाए पुरवाई हो वो फिर भी पुरवाई न ली जाए तज़ईन-ए-तख़य्युल तो है लाज़मी फ़नकारो औरों से किसी सूरत गोयाई न ली जाए जो ख़ुसरव-ए-हस्ती हैं अक्सर यही कहते हैं सदक़े में किसी से भी दाराई न ली जाए आईन-ए-ज़बाँ-बंदी क्या इस लिए नाफ़िज़ है बेदार न हो पाएँ अंगड़ाई न ली जाए हाँ सब्र-ओ-क़नाअत का 'मक़्सूद' ये मतलब है क़र्ज़े की कोई शय भी ऐ भाई न ली जाए