फ़िक्र-ए-मआ'श और मिरी शाइरी तमाम दोनों ही आस्तीं में पले ज़िंदगी तमाम हम लग़्ज़िश-ए-ख़फ़ीफ़ पे निकले थे ख़ुल्द से ग़ारत तिरे ग़ुरूर ने की बंदगी तमाम लाहक़ हुआ है इश्क़ तो मेरे वजूद से रिसती है रोज़-ओ-शब ही मिरी दिल-लगी तमाम जोंकें तुम्हारी याद की चिपकी हैं दिल के साथ पीती रहेंगी ख़ून मिरा ज़िंदगी तमाम तुझ को तिरा घमंड मुबारक हुआ करे अपनी 'नदीम' आजिज़ी में कट गई तमाम