नग़्मा-ए-मीना है रक़्स-ए-जाम है तू कहाँ ऐ गर्दिश-ए-अय्याम है हो न जाए हुस्न पर जब तक निसार ज़िंदगी इल्ज़ाम ही इल्ज़ाम है उठ गए सब मय-कशान-ए-सरफ़रोश मय-कदों में अब ख़ुदा का नाम है फेर लीं जिस से निगाहें आप ने उस की क़िस्मत में कहाँ आराम है तुम ही ना-महरम हो वर्ना मय-कशो ज़िंदगी ख़ुद इक छलकता जाम है आदमी को मारती है ज़िंदगी मौत पर तो मुफ़्त का इल्ज़ाम है तेरे बस का रोग ऐ 'साबिर' नहीं शायरी तो दिल-जलों का काम है