राज़-ए-उल्फ़त अहल-ए-दुनिया को जो समझाने गए दर-ख़ुर-ए-दार-ओ-रसन वो लोग गर्दाने गए 'सरमद'-ए-जाँ-बाज़ था ईसा था या 'मंसूर' था शम्अ' की लौ तक यही दो-चार परवाने गए मय-कदे का मय-कदा रूस्वा-ए-आलम हो गया जिस किसी कम-ज़र्फ़ तक लबरेज़ पैमाने गए अहल-ए-अक़्ल-ओ-होश ने क्या क्या न तोड़े उन पे ज़ुल्म उस पे भी सौ सौ दुआएँ दे के दीवाने गए नौ-ए-इंसाँ को मिले जिन से मय-ए-उल्फ़त के जाम अब कहाँ ऐ साक़ी-ए-रा'ना वो मय-ख़ाने गए मय-कदे ही में मिला कुछ तेरी हस्ती का निशाँ दैर-ओ-का'बा में भी यूँ तो तेरे दीवाने गए 'साबिर'-ए-नादाँ न समझा इश्क़ के अंजाम को जाने कितनी बार उस को हम भी समझाने गए