नहीं कुछ भी करने से बाज़ आ गया क्या ये दिल अपनी फ़ुर्सत से उक्ता गया क्या कोई मुझ असीर-ए-हवस को ये पूछे सुकूँ मिल गया क्या क़रार आ गया क्या वो जिस बात पर तुम ने परखी है दुनिया कभी ख़ुद को भी आज़माया गया क्या है चुप चुप सा क्यों बज़्म-ए-याराँ का आलम जो कहना नहीं वो बोला गया क्या तिरे साथ रह कर भी औरों के थे हम ख़याल और कुछ था पे सोचा गया क्या हर इक बात पर इतनी क़स्में न खाओ तुम्हारा कोई झूट पकड़ा गया क्या 'अमर' ला-उबाली तबीअत का मालिक ख़ुद अपने तग़ाफ़ुल से मारा गया क्या