नहीं नाम-ओ-निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं सवार-ए-कश्ती-ए-अमवाज-ए-दिल हैं और ग़ाफ़िल हैं समझते हैं कि हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं उजाड़ ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था यहाँ दो-चार बैठे हैं वहाँ दो-चार बैठे हैं फिर आती है इसी सहरा से आवाज़-ए-जरस मुझ को जहाँ मजनूँ से दीवाने भी हिम्मत हार बैठे हैं समझते हो जिन्हें तुम संग-ए-मील ऐ क़ाफ़िले वालो सर-ए-रह ख़स्तगान-ए-हसरत-रफ़्तार बैठे हैं ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं तुम्हें 'अंजुम' कोई उस से तवक़्क़ो हो तो हो वर्ना यहाँ तो आदमी की शक्ल से बे-ज़ार बैठे हैं