नहीं था ज़ख़्म तो आँसू कोई सजा लेता किसी बहाने ग़म-ए-आबरू बचा लेता ख़बर न थी कि सियाही का जाल फैलेगा लहू की आग सर-ए-शाम ही जला लेता ज़बाँ पे हर्फ़ भी आया जुनूँ का पत्थर भी मैं बे-लिबास था किस किस का आसरा लेता जगा दिया था दुखों के जुलूस ने वर्ना मैं आज दामन-ए-शब-ताब से हवा लेता पलट गया कोई लम्हा ठिठक गए हैं क़दम कोई जो साथ निभाता मिरी दुआ लेता ये कल की बात नहीं आज की कहानी है वो आज ज़ख़्म न होता तो मैं छुपा लेता न जाने कौन सी मंज़िल मिरा मकाँ होती कि मैं वजूद की गठरी अगर उठा लेता