नाज़ होते न कहीं हुस्न के ग़म्ज़े होते हम न होते तो कहाँ प्यार के चर्चे होते आज नज़रों में तिरी हम जो ज़माने होते कल फ़ज़ाओं में बिखरते हुए नग़्मे होते साए ज़ुल्फ़ों के अगर आप के महके होते फूल काँधों पे लिए अपने जनाज़े होते हम जो होते तिरी यादों में यक़ीनन शामिल गौहर-ए-अश्क तिरी आँख से बरसे होते दामन-ए-दिल पे उन्हें हम तो सजाए रखते मिस्ल-ए-ख़ंजर न अगर आप के जुमले होते उफ़ ये तारीक फ़ज़ाओं का सुलगता जादू काश बिखरे तिरी यादों के उजाले होते बद-नसीबों पे कभी यूँ न बरसते 'अख़्तर' आतिश-ए-ग़म में अगर आप भी तड़पे होते