नक़्श गुज़रे हुए लम्हों के हैं दिल पर क्या क्या मुड़ के देखूँ तो नज़र आते हैं मंज़र क्या क्या कितने चेहरों पे रहे अक्स मिरी हैरत के मेहरबाँ मुझ पे हुए आईना-पैकर क्या क्या वक़्त कटता रहा मय-ख़ाने की रातों की तरह रहे गर्दिश में ये दिन रात के साग़र क्या क्या चश्म-ए-ख़ूबाँ के इशारों पे था जीना मरना रोज़ बनते थे बिगड़ते थे मुक़द्दर क्या क्या पाँव उठते थे उसी मंज़िल-ए-वहशत की तरफ़ राह तकते थे जहाँ राह के पत्थर क्या क्या रहगुज़र दिल की न पल-भर को भी सुनसान हुई क़ाफ़िले ग़म के गुज़रते रहे अक्सर क्या क्या आज़राना थे मिरी वहशत-ए-दिल के सब रंग शाम से सुब्ह तलक ढलते थे पैकर क्या क्या और अब हाल है ये ख़ुद से जो मिलता हूँ कभी खोल देता हूँ शिकायात के दफ़्तर क्या क्या