नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं कब आसमाँ ज़मीन ओ ज़मीं आसमाँ नहीं आँखों से देख कर तुझे सब मानना पड़ा कहते थे जो हमेशा चुनीं है चुनाँ नहीं उस बज़्म में नहीं कोई आगाह-ए-दर्द कब वाँ ख़ंदा ज़ेर-ए-लब इधर अश्क-ए-निहाँ नहीं अफ़्सुर्दा-दिल न हो दर-ए-रहमत नहीं है बंद किस दिन खुला हुआ दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं लब बंद हों तो रौज़न-ए-सीना को क्या करूँ थमता तो मुझ से नाला-ए-आतिश-इनाँ नहीं मिलना तिरा ये ग़ैर से हो बहर-ए-मस्लहत हम को तो सादगी से तिरी ये गुमाँ नहीं ऐ दिल तमाम नफ़अ है सौदा-ए-इश्क़ में इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं बे-वक़्त आए दैर में क्या शोरिशें करें हम पीर ओ पीर-ए-मै-कदा भी नौजवाँ नहीं कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़ शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं 'आज़ुर्दा' होंट तक न हिले उस के रू-ब-रू माना कि आप सा कोई जादू-बयाँ नहीं