नाक़ा-ए-वक़्त निकलती ही चली जाती है जिस्म से ख़ाक फिसलती ही चली जाती है ज़ख़्म सीने में छुपा रख कि हवा है ऐसी ख़ाक हर फूल पे मलती ही चली जाती है हैं सब आईने परेशाँ कि उरूस-ए-फ़ितरत रंग हर लहज़ा बदलती ही चली जाती है दिल-शिकन कितनी है इस ख़ाक-ए-रवाँ की रफ़्तार पा शिकस्तों को कुचलती ही चली जाती है किस की रह देख रही है कि कोई शम-ए-वफ़ा दिल से खे़मे में भी जलती ही चली जाती है सर में क्या शो'ला-ए-ख़ुद-सर है कि नीचे हर शय मोम की तरह पिघलती ही चली जाती है हाथ पाँव तो मैं मारूँ हूँ पे वो चश्म-ए-फ़ुसूँ मिस्ल-ए-गर्दा निगलती ही चली जाती है फूल फेंके हैं किसी याद ने क्या क्या 'हैदर' दिल में जो राख थी जलती ही चली जाती है