निज़ाम-ए-ज़र का ये बेहूदा जाल था ही नहीं हमारी पोटली में ऐसा माल था ही नहीं हज़ार सूरतें देखी थीं एक सूरत में ग़म-ए-ज़माना हमारा वबाल था ही नहीं चले ही चलते थे इक रौशनी की रौ में कहीं सफ़र-नवर्दी कुछ ऐसा कमाल था ही नहीं बरस रहा था मकानों पे अब्र ज़ोरों का मगर ये दिल कि सिरे से निहाल था ही नहीं शबें यूँही किसी ख़ाल-ए-दहन में काटते थे जुनून करने का कोई ख़याल था ही नहीं मगर ज़माना रग-ओ-पै में से गुज़रता है कि अब की बार वो अपनी मिसाल था ही नहीं