नक़ाब अपने रुख़ से उठाया तो होता मुझे अपना जल्वा दिखाया तो होता अबस चारासाज़ों को देते हो ज़हमत यहाँ तक कोई उस को लाया तो होता सर-ए-बज़्म उन का बिगड़ने से मतलब गुनाह-ए-मोहब्बत बताया तो होता हर इक शय से क्यों फूट निकली तजल्ली छुपे थे तो ख़ुद को छुपाया तो होता नज़ाकत मोहब्बत की फिर तुम समझते कभी बार-ए-उल्फ़त उठाया तो होता गुल-ए-तर की आग़ोश में हँसने वाले मिरे ग़म-कदे में भी आया तो होता ये मुमकिन है वो राह पर आएँ 'जौहर' कभी क़िस्सा-ए-दिल सुनाया तो होता