नक़्श दीवार पर बनाता है कौन बुझते दिए जलाता है शब किनारे पे लौट आती है दिन समुंदर में डूब जाता है पहले आती है शाम-ए-वस्ल-तलब फिर तिरा ख़्वाब मुझ को आता है हम-सफ़र गर बना नहीं सकता क्यों मुझे रास्ता दिखाता है ढल रहा है ख़ुद उस की सूरत में तू जिसे चाक पर घुमाता है