नसीब-ए-इश्क़ मसर्रत कभी नहीं होती ये बज़्म वो है जहाँ रौशनी नहीं होती जबीन-ए-इश्क़ के सज्दे क़ुबूल होते हैं मिज़ाज-ए-हुस्न में जब बरहमी नहीं होती समझ चुके हैं असीरी को हम पयाम-ए-अजल कि ज़िंदगी-ए-क़फ़स ज़िंदगी नहीं होती मिरे बग़ैर उन्हें कौन जान सकता है वो यूँ गुज़रते हैं आवाज़ भी नहीं होती तिरा सितम भी तो है एक पुर्सिश-ए-ख़ामोश तिरी निगाह कभी अजनबी नहीं होती बढ़े चलो यही वारफ़्तगी की मंज़िल है रह-ए-तलब में कभी शाम ही नहीं होती दिल एक आतिश-ए-ख़ामोश ही सही लेकिन तुम्हारी याद में कोई कमी नहीं होती मिरी नज़र में यक़ीनन वो नंग-ए-गुलशन है अमीन-ए-राज़-ए-चमन जो कली नहीं होती मिली है राह-ए-तलब में 'मुशीर' सिर्फ़ मुझे वो ज़िंदगी जो कभी ज़िंदगी नहीं होती