नया मौसम है थोड़ी सी ख़ुशी दे मिरे हिस्से में जितनी है हँसी दे मैं अपने घर के दरवाज़े पे पहुँचूँ मिरी आँखों को इतनी रौशनी दे ख़लाओं में भटकता फिर रहा हूँ मैं समझूँ ख़ुद को इतनी आगही दे मिरा मंसब तो है मसनद-नशीनी मुझे ग़म दे कि चाहे तू ख़ुशी दे न हो शर्मिंदा वो बाद-ए-सबा से तू इन फूलों को ऐसी ताज़गी दे उलझ जाता है वो हर इक से 'नश्तर' मिरे मालिक उसे संजीदगी दे