नज़र अब फ़ारिग़-उल-बाली के आते हैं नहीं साए हमारी तंग-दस्ती ने कहाँ तक पाँव फैलाए ग़ज़ब है ये किसी की आरज़ू पर ओस पड़ जाए इरादा मुस्कुराने का करे और आँख भर आए बशर मजबूर हो कर ही तो पी जाता है आँसू को अगर ऐसा न हो तो क्या ख़ुशी से कोई ग़म खाए मिरी तर-दामनी पर ज़ाहिदान-ए-ख़ुश्क हँसते हैं मैं नाज़ाँ उस की रहमत पर ये सज्दों पर हैं इतराए अगर कुछ लुत्फ़ पीने का उठाना है तो ऐ रिंदो चले उस वक़्त दौर-ए-जाम जब काली घटा छाए दराज़ी-ए-शब-ए-ग़म की शिकायत के एवज़ हमदम अगर कुछ आप-बीती ही कहें तो रात कट जाए सफ़र तन्हा ही करते हैं अदम का ऐ 'रियाज़ी' सब न साथ अहबाब देते हैं न हमदम और हमसाए