नज़र में शाइबा-ए-हुस्न-ए-यार आ जाए जिधर निगाह उठा दूँ बहार आ जाए बताते हैं तिरे कूचे में मेरी ख़ैर अहबाब मिरी तरफ़ से न दिल में ग़ुबार आ जाए मिरी लहद पे रक़ीबों ने संग-ए-राह लिखा तुम्हारे दिल में न कोई ग़ुबार आ जाए मुसिर हैं इस पे वफ़ाएँ मिरी कि अब तुर्बत बगूला बन के सर-ए-राह-ए-यार आ जाए दिखा न साक़ी-ए-रोज़-ए-अज़ल मुझे इक दिन कहीं न ज़िंदगी भर को ख़ुमार आ जाए जगाने क़ब्र पे गर रोज़-ए-हश्र वो आएँ तो लुत्फ़-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार आ जाए इलाही हँस पड़े दोज़ख़ भी तेरी रहमत पर समेटूँ आग तो बाग़-ओ-बहार आ जाए तलब तो हो दिल-ए-आशिक़ से क्या नहीं मुमकिन ये गर ब-ज़िद हो तो परवरदिगार आ जाए वहीं तलाश करो जल्वा-गाह-ए-नाज़ 'क़दीर' नज़र जहाँ वो दिल-ए-दाग़-दार आ जाए