सहल था जान-आफ़रीं तन्हा तुम्हारे तीर का काम लेता हूँ दिल-ए-नाचीज़ से इक्सीर का काकुल-ए-जानाँ से मिलना हल्क़ा-ए-ज़ंजीर का देखो अब अंजाम क्या हो वहशी-ए-दिल-गीर का साथ किस आलम में छूटा गर्दिश-ए-तक़दीर का है असीरी का कहीं ग़म और कहीं ज़ंजीर का तुम ही जानो नावक-ए-मिज़्गाँ था किस तासीर का ख़ून का रिश्ता मगर मिलता है दिल से तीर का रहनुमा-ए-दिल दुआ देते हैं तुम को रात दिन ज़िक्र अक्सर होता रहता है तुम्हारे तीर का हो चुके हैं ग़ालिबन अब दिन असीरी के तमाम क़ैद में ख़ुद बह गया आहन मिरी ज़ंजीर का कोहकन और क़ैस फिर वापस बुलाए जाएँगे कोह और सहरा में मंसूबा है जू-ए-शीर का हुस्न-ए-शीरीं देख कर ही मर तो जाता कोहकन था मगर तक़दीर में लाना भी जू-ए-शीर का हुस्न-ए-ज़न कह लीजिए या फिर फ़रेब-ए-आगही और ज़ियादा कुछ पता चलता नहीं तक़दीर का लौह-ए-मरक़द पर ये लिखवा दीजिए हज़रत 'क़दीर' आख़िरी ज़ीना है ये इंसान की ता'मीर का