निगाह-ए-ख़िशमगीं में प्यार की ज़िया कर के हम आज़माए गए अर्ज़-ए-मुद्दआ करके नई उमीद नए ग़म से आश्ना करके गुज़र गई शब-ए-हिज्राँ ख़ुदा ख़ुदा करके जुनूँ के साथ भी कुछ दूर हम को चलने दो ख़िरद को देख लिया हम ने रहनुमा करके हरीफ़-ए-अम्न-ओ-अमाँ का यही है मंसूबा कि फ़र्द फ़र्द को रख दे यहाँ जुदा करके मिज़ाज अहल-ए-सियासत के जब बदलने लगे क़दम तुम्हें भी उठाना है फ़ैसला करके ये सिलसिला तो सताइश का ख़ूब है लेकिन मिटा न दे कहीं मग़रूर-ए-इर्तिक़ा करके ग़ुरूर-ए-जाह-ओ-हशम ने तमाम उम्र हमें कहीं का रक्खा न आवारा-ए-अना करके किसी ग़रीब को देखो न तुम हिक़ारत से जो हो सके तो गुज़र जाओ कुछ भला करके वही फ़साना-ए-फ़िक्र-ए-मआश है अब भी हम इंतिहा को तरसते हैं इब्तिदा करके क़दम उसी का वक़ार-ए-हयात चूमे है पशेमाँ होता है जो आदमी ख़ता करके है अब भी वक़्त सँभल जाओ ऐ 'तरब' वर्ना ज़माना तुम को न रख दे कहीं फ़ना करके