निगाह-ए-नाज़ से बिजली गिरा के देखो तो हमारा ज़र्फ़ कभी आज़मा के देखो तो जो बन पड़े तो उठाओ नक़ाब-ए-रू-ए-हयात रुख़-ए-निगार से पर्दा हटा के देखो तो न आओ तुम मिरे घर की तरफ़ पे ये तो करो मिलो जो राह में नज़रें बचा के देखो तो गिरो न अहल-ए-वफ़ा की नज़र से तब जानें नज़र से अपनी हमें तुम गिरा के देखो तो फ़क़त हैं कहने की बातें हक़ीक़त और मजाज़ न झाँको आइने में पास आ के देखो तो पियो तो रित्ल-ए-गिराँ वाइज़-ए-करम-फ़रमा किसी की आँख से टुक डगमगा के देखो तो वरक़ वरक़ है चमन-ज़ार-ए-हर्फ़-ए-राज़ मगर नक़ाब-ए-आरिज़-ए-मा'नी उठा के देखो तो नहीं हैं वक़्त कि रूठें तो फिर वो मन न सकें हज़ार बार मनाओ मना के देखो तो वो कहते हैं कि लगावट नहीं उन्हें 'नक़वी' ज़रा तुम उन की तरफ़ मुस्कुरा के देखो तो