निगाह-ए-शर्मगीं सहर-आफ़रीं मालूम होती है ये दुश्मन है मगर दुश्मन नहीं मालूम होती है मोअ'त्तर है मशाम-ए-जाँ बहार-ए-हुस्न-ए-रंगीं से खुली फिर आज ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं मालूम होती है कहीं हैरत में नर्गिस है कहीं गुल चाक-दामन है मोहब्बत की फ़ज़ा कितनी हसीं मालूम होती है उड़ाई ख़ाक मैं ने इस क़दर कू-ए-मोहब्बत की कि अपने सर पे भी मुझ को ज़मीं मालूम होती है ख़लिश-हा-ए-तमन्ना की शिकायत क्या दिल-ए-नादाँ मोहब्बत में मुसीबत भी कहीं मालूम होती है ख़ुदा जाने चमन में आज क्या गुज़री नशेमन पर परेशाँ ख़ुद-बख़ुद जान-ए-हज़ीं मालूम होती है ये आकर दिल में फिर दिल से नहीं मिटती नहीं जाती हसीनों की तमन्ना भी हसीं मालूम होती है बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती पे क्यों नाज़ाँ है ऐ गुलचीं छुपी शायद ख़िज़ाँ इस में नहीं मालूम होती है 'वफ़ा' हो या जफ़ा हो कुछ नहीं इस से ग़रज़ मुझ को किसी की हर अदा दिल को हसीं मालूम होती है