नियाज़-आगीं है और नाज़-आफ़रीं भी अगर सज्दे में झुक जाए जबीं भी हक़-आगाही से उठ जाएँगे पर्दे नज़र हो नुक्ता-रस भी नुक्ता-चीं भी दिलों में चाहिए वुसअ'त-निगाही बदल जाती है चश्म-ए-ख़शमगीं भी हक़ाएक़ पर जमी है गर्द-ए-बातिल है गुम वहमों में एहसास-ए-यक़ीं भी सलामत उन का दामन बे-ख़ुदी में लिया है हम ने कार-ए-आस्तीं भी उजाले हैं मिरे क़ल्ब-ओ-नज़र के ये मेहर-ए-ज़ौ-फ़िशाँ माह-ए-मुबीं भी ब-फ़ैज़-ए-तल्ख़ी-ए-हालात 'रौनक़' इबारत ज़हर से है अंग्बीं भी