निय्यत हो अगर नेक तो देता है ख़ुदा भी करते हैं अमल लोग तो मिलता है सिला भी बातिन की हरारत से फुंके जाते हैं तन-मन पुर्वाई भी चलती है बरसती है घटा भी छू कर नहीं गुज़री है तिरी ज़ुल्फ़-ए-मुअत्तर इस बार तो महरूम चली आई सबा भी इक तुम हो कि बिछड़े तो बिछड़ ही गए हम से मिलते हैं बहुत लोग तो होते हैं जुदा भी आदाब-ए-मोहब्बत थे कि दामन नहीं छोड़ा तुम दूर न थे दूर न थे बंद-ए-क़बा भी किस यास के आलम में हों क्या जानिए 'अतहर' मुद्दत हुई आई नहीं होंटों पे दुआ भी