तीर जब अपनी कमानों से निकल जाते हैं कुछ परिंदे भी उड़ानों से निकल जाते हैं जाने किस राह पे कुछ भूक से सहमे बच्चे रात को अपने मकानों से निकल जाते हैं ज़र्फ़ की बात न कर फूट पड़ें तो लावे ख़ुद पहाड़ों के दहानों से निकल जाते हैं हम भी क्या लोग हैं इक घर को बनाने के लिए किस क़दर दूर घरानों से निकल जाते हैं ज़ब्त मिट जाए तो अल्फ़ाज़ बग़ावत बन कर कितनी ख़ामोश ज़बानों से निकल जाते हैं वो तो होते हैं फ़क़त वक़्त-गुज़ारी के लिए लोग जो याद के ख़ानों से निकल जाते हैं कितने नादान हैं जो लोग नज़र से गिर कर दिल के महफ़ूज़ ख़ज़ानों से निकल जाते हैं