नुमू की आग से मिट्टी तही थी करते क्या ज़मीं की कोख से दीवार-ओ-दर उभरते क्या वो आसमाँ पे कहीं था ज़मीन पर हम थे हमारे हाथ कबूतर के पर कुतरते क्या नज़र थी अब्र की फ़नकारियों में खोई हुई तो हम ख़याल के ख़ाकों में रंग भरते क्या पसंद आ गईं सहरा-नवर्दियाँ हम को जुनूँ-नवाज़ थी फ़ितरत ख़िरद पे मरते क्या ख़ला का रिज़्क़ थे आख़िर ख़ला के काम आए फ़लक से आ के सितारे ज़मीं पे करते क्या हम ऐसे सहल-पसंदों से दूर रहते हैं जिधर थी भीड़ उसी राह से गुज़रते क्या जमाल-ए-सादा के शो'लों से जल रहे थे ख़याल वो यूँही हुस्न का मेआ'र थे सँवरते क्या किसी तिलिस्म ने ज़ेहनों को बाँध रक्खा था हम अपने आप में कब थे कहीं ठहरते क्या शिकस्तगी के कुछ अस्बाब चाहिएँ 'यावर' चला न संग कोई टूटते बिखरते क्या