रक़्स में आज कहीं शो'ला-ए-इंकार है क्या यूँ नहीं है तो धुआँ सा पस-ए-दीवार है क्या वारदातें जो गुज़रती हैं ठिठक जाती हैं तेरे अतराफ़ कोई रास्ता बेदार है क्या लग गई आग तिरे आने से गुलज़ारों में अब बता हाल तिरा अब्र-ए-ख़ुश-आसार है क्या उस के ख़ामोश तकल्लुम को जो देखा तो खुला गुफ़्तुगू कहते हैं किस चीज़ को इज़हार है क्या क्यों तिरा चेहरा नज़र आता है टुकड़े टुकड़े अब शिकस्ता तिरा आईना-ए-किरदार है क्या कू-ब-कू पूछता फिरता हूँ मैं सब से ये सवाल दीद कहते हैं किसे दौलत-ए-दीदार है क्या उस के कूचे से उजालों का सफ़र जारी है ख़ेमा-ज़न क़ाफ़िला-ए-साबित-ओ-सय्यार है क्या रात होती है तो बढ़ जाता है शोर-ए-गिर्या आज-कल मेरा पड़ोसी कोई बीमार है क्या मेरी ठोकर में पड़े रहते हैं अफ़्लाक तमाम शौक़-ए-इज़हार नहीं वर्ना ये कोहसार है क्या क़ीमत-ए-हुस्न तो मौक़ूफ़ हैं मद्दाहों पर न ख़रीदार हो मौजूद तो बाज़ार है क्या बहर-ए-मव्वाज में तिनके पे भरोसा न करो सर पे सूरज हो तो फिर साया-ए-दीवार है क्या इतना रौशन तो नहीं मेहर-ए-फ़लक भी 'यावर' उफ़ुक़-ए-फ़िक्र पे आख़िर ये नुमूदार है क्या