नुमूद-ए-सुब्ह पर यूँ ए'तिबार-ए-शाम आता है कि जैसे बाद-ए-फ़स्ल-ए-गुल ख़िज़ाँ का नाम आता है तबस्सुम भी हैं आँसू भी हैं उन की बज़्म में लेकिन वही है कामयाब-ए-इश्क़ जो नाकाम आता है लगा लें क्यों न उन के दर्द को शाम-ए-अलम दिल से वही हमदम है अपना वक़्त पर जो काम आता है न क़िस्मत साथ देती है न दिल ही साथ देता है किसी के आस्ताँ से जब कोई नाकाम आता है सुनाता है किसी को कोई जब पुर-दर्द अफ़्साना न जाने क्यों मिरे लब पर तुम्हारा नाम आता है किसी की बे-रुख़ी से तर्क-ए-उल्फ़त कर तो दूँ लेकिन वफ़ाओं पर मिरी 'अंजुम' बड़ा इल्ज़ाम आता है