इक तअ'ल्लुक़ नहीं सँभला तो भँवर तक पहुँचा देखते देखते पानी मिरे सर तक पहुँचा तुझ से बिछड़े तो न रास आई कोई भी मंज़िल फिर जुनूँ मेरा तिरी राहगुज़र तक पहुँचा इस क़दर धूप में शिद्दत थी कि घबरा कर दिल साए की आस में बे-साया शजर तक पहुँचा खो गया दिन के उजालों से मिला कर मुझ को एक सितारा जो मिरे साथ सहर तक पहुँचा इक तकब्बुर से हुनर ऐब में तब्दील हुआ ऐब एहसास-ए-नदामत से हुनर तक पहुँचा एक बे-सम्त बगूला था वो 'नुसरत' जिस ने शक्ल इंसान की धारी मिरे घर तक पहुँचा