पहले तो उन को उड़ने उड़ाने की पड़ गई फिर आसमाँ ज़मीन पे लाने की पड़ गई क्या क्या गँवा दिया है मोहब्बत में आज तक इक दिन मुझे हिसाब लगाने की पड़ गई अब तक क़दीम ज़ख़्म हरारत में थे मिरे ज़ालिम को अपना ज़ुल्म बढ़ाने की पड़ गई जिद्दत ग़म-ए-हयात की दिल में लिए हुए मैं रो रहा था उस को हँसाने की पड़ गई इज़हार-ए-इश्क़ करने ही वाला था उन से में वापस उन्हें तो आते ही जाने पड़ गई मैं भी लहूलुहान हूँ वो भूल ही गया उस को तो अपना ज़ख़्म दिखाने की पड़ गई दम आख़िरी है लब पे मिरा उस को दोस्तो इस हाल में भी छोड़ के जाने की पड़ गई कुछ नेकियाँ भी तू ने कमाई हैं क्या 'मलिक' दौलत तो बे-शुमार कमाने की पड़ गई