पहली जैसी ही कशिश आज भी है कल जो थी उन की रविश आज भी है कल भी इंसाफ़ का सर कटता था जुर्म पर दाद-ओ-दहिश आज भी है कल जो ख़्वाहिश थी तन-आसानी की वही पहलू में ख़लिश आज भी है ज़ेहन का कैसा है रिश्ता मज़बूत अपने मलबे में कशिश आज भी है आग से आग बुझाई न गई राख से लिपटी तपिश आज भी है शब की ज़ुल्मत का वही ग़म है 'असर' दूसरे दिन की कशिश आज भी है