पहलू में मैं दबाए हुए दर्द-ओ-ग़म उठा महफ़िल से तेरी जब भी उठा चश्म-ए-नम उठा ठोकर से गर्द-ए-राह अड़ी रहनुमा बनी मंज़िल की सम्त जब भी हमारा क़दम उठा अब लिख दे हुस्न-ओ-इश्क़ की रंगीन दास्ताँ ऐ शाइ'र-ए-जदीद उठा फिर क़लम उठा सज्दा क़दम क़दम पे जो करता हुआ चला ताज़ीम के लिए मेरी ख़ुद भी हरम उठा रिंदों ने एहतिराम से सर को झुका लिया महफ़िल में ज़िक्र जब भी कभी जाम-ए-जम उठा उस बुत ने जब भी खोल दिए गेसू-ए-हसीं हर सम्त झूम झूम के अब्र-ए-करम उठा जब बे-नक़ाब आ गए 'अनवर' को वो नज़र फिर सामने से पर्दा-ए-दैर-ओ-हरम उठा