पैकर-ए-लाला-ओ-गुल है उसे पत्थर न कहो वो है महबूब मिरा उस को सितमगर न कहो ये तो सच है कि ख़ुदा ने है दिया सब्र मुझे फिर भी अय्यूब नहीं मुझ को पयम्बर न कहो अपनी तख़्लीक़ को बेचा नहीं करते फ़नकार बुत-फ़रोशों को कभी भूल के आज़र न कहो मुंतशिर सदियों से हैं तार-ए-गरेबाँ की तरह हम हैं औराक़-ए-परेशाँ हमें दफ़्तर न कहो दोस्तो कुछ तो कहो ताकि मैं ख़ुद को जानूँ मुझ को बद-तर ही कहो गर मुझे बेहतर न कहो वो तो पागल है जिसे कहते हैं सब लोग 'उमर' ऐसे दीवाने को दाना-ओ-क़लंदर न कहो